अथर्ववेद
वेद
वेदोऽ खिलो धर्म मूलम
(सभी धर्मो का मूलस्त्रोत वेद है)
वेद दुनिया के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज है। वेद ही भारतीय सनातन हिंदु धर्म याने ही मानव धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरी धर्मग्रंथ है। जिसमे मानवतावाद की परीभाषा रखी गयी है इसलिए इसे हिंदू धर्म के साथ मानव धर्म भी कहेंगे।
इसके श्रेष्ठत्व को अगर जानना है तो हमें वेदो का गहरा अभ्यास और तात्त्विक दृष्टी से सोचना जरूरी होगा। जब हमारा अध्ययन गहरा होगा तो सवाल भी कम ही उत्पन्न होंगे।
प्राचीन भारतीय ऋषि जिन्हे त्रिकालदर्शी, मंत्रदृष्टा कहा गया है, उन्होनें मंत्रो के विज्ञान और गूढ रहस्यो को समझ कर, मनन कर उनकी अनुभूती करके उस ज्ञान को जिन ग्रंथो में संकलित कर संसार के समक्ष प्रस्तुत किया वो प्राचिन ग्रंथ 'वेद' कहलाए।
वेद ही ज्ञान है।
पुराण
भारतीय संस्कृती के मूलाधार रूप में वेदो के अनन्तर पुराणों का ही सम्मानपूर्ण स्थान है। वेदो में वर्णित अगम रहस्यों तक जन-सामान्य की पहुंच नहीं हो पाती, परंतु भक्तिरस-परिलुप्त पुराणों की मंगलमयी, शोकनिवारिणी, ज्ञानप्रदायिनी दिव्य कथाओं का श्रवण-मनन, पठन-पाठन कर जन साधारण भी भक्तितत्व का अनुपम रहस्य सहज ही ह्रदयंङ्गम कर लेते है। महाभारत में कहा गया है--
"पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः" (आदिपर्व १/१६)
अर्थात:
पुराणों की पवित्र कथाएं धर्म और अर्थ को देनेवाली है। परमात्म् दर्शन अथवा शारिरीक एवं मानसिक अधिव्याधि से छुटकारा प्राप्त करने के लिये अत्यंत कल्याणकारी पुराणों का श्रद्धापूर्वक, ज्ञानपुर्वक समझकर पारायण करने से मन की शांति और सुख प्राप्त होता है।
ॐ
उपनिषद्
उपनिषद् आध्यात्मिक विद्या अथवा ब्रम्हविद्या को कहते हैं। वेद का अंतिम भाग होने से इसे वेदांत भी कहा जाता है और वेदांत संबंधी श्रुति-संग्रह ग्रंथो के लिये भी उपनिषद् शब्द का प्रयोग होता है।
उपनिषद् वेदो का ज्ञानकांड है। यह चिरप्रदिप्त ज्ञानदिपक है जो सृष्टी के आदि से प्रकाश देता चला आ रहा है और लयपर्यंत पूर्ववत प्रकाशित रहेगा। इसके प्रकाश में वह अमरत्व है, जिसने सनातन धर्म के मूल का सिंचन किया है। यह जगत कल्याणकारी और भारत की अपनी निधी है, जिसके सम्मुख विश्व का प्रत्येक स्वाभिमानी सभ्य राष्ट्र श्रद्धा से नतमस्तक रहा है और सदा रहेगा। अपौरुषेय वेद का अन्तिम अध्यायरूप यह उपनिषद् ज्ञान का आदिस्त्रोत और विद्या का अक्षय्य भंडार है।
वेद का प्रथम सिद्धांत -
'एकमेवाद्वितीयं ब्रम्ह नेह नानास्ति किंञ्चन।'
-का प्रतिपादन कर उपनिषद् जीव को अल्पज्ञान से अनन्तज्ञान की ओर, अल्पसत्ता और सीमित सामर्थ्य से अनन्त सत्ता और अनन्त शक्ति की ओर , जगत दुःखो से अनन्त आनंद की ओर और जन्म-मृत्यु बंधन से अनंत शाश्वत शांति की ओर ले जाती है।
ॐ
ऋग्वेद
वेदो का सबसे आरंभिक स्त्रोत ऋग्वेद है। इसमें १० मंडल(अध्याय) है, १०२८ सूक्त और १०४६२ मंत्र है। निसर्ग में स्थित सर्व सृष्ट्रेन्द्रिय और खगोलीय ग्रह तारों को वेदो में देवताओं का सम्मान मिला है। ऋग्वेद में इन्ही देवताओं की स्तुति मंत्रो द्वारा की गयी है। सृष्ट्रेन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञानपूर्वक ग्रहण करने पर सृष्टी और मानव में समतोल रहकर कभी भी सृष्टी और मनुष्य जीवन में आपदा और दु:ख का आना असंभव है।
यही वेदो की विशेषता है।
'पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्' ।
वेद-विद्या भारतीय संस्कृती का पहला प्रतीक है। वेद-विद्या त्रयीविद्या कहलाती है। ऋक्, यजु:, और साम ही त्रयी विद्या है। त्रयीविद्या का संबंध अग्नित्रय से है। अग्नि, वायु और आदित्य- ये तीन तत्व ही विश्व में व्याप्त है। त्रयीविद्या के समान ज्ञान, कर्म और उपासना यह त्रिक वेद विद्या का दुसरा स्वरूप है, जिसके माध्यम से वेदब्रम्ह की सत्, चित् और आनन्द इन तीन विभूतियो की अभिव्यक्ती हो रही है। आत्मकल्याण के लिये मानव को धर्म के मूल स्त्रोत वेदों का अध्ययन, मनन और यथार्थ चिंतन आत्मनिष्ठा के साथ करना चाहिए।
(प्रस्तुती-श्री मदनजी शर्मा शास्त्री)
आरम्भयज्ञ क्षत्राश्च हविर्यज्ञा: विश: स्मृता:।
परिचारयज्ञा: शूद्राश्च जपयज्ञा: द्विजास्तथा।।
अर्थात पराक्रम-उद्योग युक्त यज्ञ करने वाले क्षत्रिय है , होम हवनादि से यज्ञ करने वालो को वैश्य कहा गया। श्रेष्ठ सेवा करने वाला शूद्र है और जप जपादि द्वारा यज्ञ करने वाले ब्राम्हण कहलाये। यह श्रेणियाँ मनुष्य के विशिष्ट स्वभाव और कर्मो द्वारा निर्माण हुई है। परंतु यह एक ही मनुष्य में स्थित विविध भाव है, कालांतर में जिसे पृथक करके जातियवाद का नाम दिया गया।
* यह निम्नलिखित मंत्र ऋग्वेद के पहले मंडल का पहला मंत्र है , जिसमे यज्ञ की महिमा का वैज्ञानिक वर्णन है
ॐ अग्निमिळें पुरोहितं यज्ञस्य देव मृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।१।।
-हम अग्निदेव की स्तुति करते है। वह अग्निदेव जो यज्ञ जैसे श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म के पुरोहित , देवता (अनुदान देने वाले ), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का संपादन करने वाले )और याजको को रत्नो से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है।। १।।
यजूर्वेद
यजूर्वेद हिंदू सनातन धर्म का एक दुसरे क्रमांक का महत्वपूर्ण श्रुति ग्रंथ है। ' यजूष ' शब्द का अर्थ है- ' यज्ञ ' । यह ग्रंथ कर्मकांड प्रधान है। श्रद्धापूर्वक कर्मकांड से मनुष्य को मन की शांति प्राप्त होती है। जो सुखी जीवन जीने के लिये महत्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में कर्मकांड संबंधित अनेक प्रकार के यज्ञों को संपन्न करने की विधीयों का उल्लेख है। इसमें गद्यात्मक और पद्यात्मक दोनो प्रकार के मंत्र है।
यजूर्वेद की दो शाखाएं है- दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा।
यज का अर्थ समर्पण से होता है। जैसे पदार्थ मे- इंधन, घी , हवि आदि कर्म - श्रद्धापूर्वक शुद्धसेवा,
इंद्रियनिग्रह इत्यादी के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा जाता है। यह वेदों की महत्ता है।
राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना
ओ3म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥
अर्थ-
ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी.
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही.
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें.
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी.
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥
सामवेद
'साम' को ही 'गान' कहते हैं । सामवेद संगीत प्रधान है। इसमे मूलतः संगीत की उपासना है । संगीत से मन की शांति का ज्ञान भी हमारे ऋषि विद्वानों की ही देन है।
वेदानां-साम-वेदो-स्मि- का भाव इस सामवेद से प्ररिलक्षित होता है। इसी के द्वारा परमात्म चेतन तक हम पहूंच सकते हैं। परमात्म चेतन ही मानसिक शांति की नींव है। सामवेद यद्यपि छोटा है, परंतु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है। सामवेद में १८७५ मंत्र है। उनमे से १५०४ मंत्र ऋग्वेद के है। सामवेद के दो भाग है -आर्चिक और गान।
सामवेद की तीन महत्वपूर्ण शाखाएं है।
१) कौथुमीय
२) जैमिनीय
३) राणायनीय
भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सामवेद के प्रथम दृष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनी को माना जाता है। सामवेद से तात्पर्य है कि वह ग्रंथ जिसके मंत्र गाए जा सकते है। यह मंत्र यज्ञ, अनुष्ठान और हवन के समय गाए जाते है।
मधुर संगीत से मन को शांति मिलती है। ज्ञान के साथ भावना का रहना आवश्यक है, सामवेद में इसी का महत्व समझाया गया है। यह सत्य है कि ज्ञान दृष्टी से परमात्म साक्षात्कार किया जा सकता है। किंतू भावना के बिना ज्ञान दृष्टी भी अपूर्ण ही रहती है।
'भावेहि विद्यते देवः तस्मात् भावो ही कारणम्'
-अर्थात भावना ही देवों का निवास है। अतः उनके साक्षात्कार का मुख्य आधार भावना ही है, किंतू भावना यह दिल से निकलने वाली उफान रुपी तरंग है। उसे भटकन से बचाकर दिशाबद्ध करने के लिये ज्ञान और विवेक का होना जरूरी है। इसलिए ज्ञान एवं भावना का युग्म ही परमात्म साक्षात्कार का सुनिश्चित आधार बनता है।
यही इस वेद की मानवजाती के लिये महान देन है। ॐ
अथर्ववेद
अथर्ववेद हिंदू सनातन धर्म के पवित्रतम चार वेदो में से चौथा वेद है। इस वेद को ब्रम्हवेद भी कहते है। इस ग्रंथ में भूगोल, खगोल, वनस्पती विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर रोगो का निदान और चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धांत, राजनिती के गुह्यतत्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महीमा, शल्यचिकीत्सा, मृत्यू को दूर करने के उपाय, मोक्ष, प्रजनन विज्ञान आदि सैंकडो लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टी से अथर्ववेद का महत्व अत्यंत सराहनीय है। अथर्ववेद में शांति-पुष्टी तथा अभिचारीक दोनों तरह के अनुष्ठान वर्णित है।
यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः
निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम्
अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान शान्ति स्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रव रहीत होकर निरंतर उन्नति करता है।
इन महान ग्रंथो की महीमा अपरंपार है। ॐ
महापुराण
Book Description : यह पुस्तक वेद , हिंदू देवी-देवता , शिवलिंग , आत्मा और ऐसे कई अन्य रहस्यों का वैज्ञानिक राज खोलती है।
E-Book Link:
वेद, ज्ञान-और-विज्ञान