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शिवसंकल्प सूक्त का वैज्ञानिक महत्व-2
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शिवसंकल्प सूक्त का वैज्ञानिक महत्व
येन कर्माण्यपसो मनीषिणों यज्ञे कृण्वन्ति विद-थेषु धीरा:।
यदपूर्व यक्षमन्त: प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ॥२॥
जिस मन से कर्मनिष्ठ एवं प्रज्ञावान मनुष्य यज्ञादि कर्तव्य-कर्म करते हैं, धीर और गम्भीर मनुष्य विचार- विमर्श एवं विज्ञान आदि से संबंधित कर्म करते हैं, जो मन अपूर्व है और सबके अंत:करण में विद्यमान है ऐसा मेरा मन शुभ एवं कल्याणकारी संकल्पो से युक्त हो।
मानव शरीर में मन एक स्वतंत्र इंन्द्रिय है। मन का स्वभाव ही है कि वह ब्रम्हांड में कही भी पहुंच सकता है।
मन यह मानव स्वभावानुसार भ्रमण करता है। जैसी उसकी विचारशैली होगी वैसा उसका मन होगा। गुणों के तीन प्रकार हैं, सत,रज और तम। याने सात्विक, राजसिक और तामसिक। इन तीनों गुणों का प्रमाण में संतुलन बनाकर मानव जीव अपना जीवन जीता है तो वह धर्मनिष्ठ होगा। समयानुसार इनका प्रमाण बदलना जरूरी होता है। इन तीनों गुणों के विविध प्रमाण से मानव के विविध स्वभाव बनते हैं। मानव स्वभाव मे सात्विकता का प्रमाण राजसी और तामसी से ज्यादा होगा तो उसका रूझान आध्यात्मिकता की तरफ ज्यादा और भौतिक सुख की ओर कम होगा। वह मानव पारमार्थिक होगा और अगर उसमें राजसी - तामसी का प्रमाण सात्विक से ज्यादा होगा तो उसका रूझान भौतिक सुखों की तरफ ज्यादा होगा और पारमार्थिक की ओर कम होगा।
जब सात्विक और राजसी में उचित संतुलन होगा तो वह मानवी मन कर्मनिष्ठ एवं प्रज्ञावान होता है और यज्ञ- यज्ञादि कर्तव्य-कर्म करने में तत्पर रहता है। अगर मनुष्य का स्वभाव धीर और गंभीर है तो वह विचार विमर्श एवं विज्ञान आदि से संबंधित कर्म करते हैं। ऐसा मेरा मन अपूर्व है। वह सबके अंत:करण में विद्यमान है।
ऐसा मेरा मन शुभ एवं कल्याणकारी संकल्पो से युक्त हो।
शास्त्रो में गुणों को उत्कृष्ट करने के लिए और सभी गुणों का संतुलित आचरण कैसे और क्यों होना चाहिए इसका विस्तार से वर्णन है। उसके लिए हमें शास्त्र पढ़ना आवश्यक है।
जयतु सनातन 🚩
जय भारत🚩